Tuesday, November 11, 2008

'सलवार कमीज़ बनाम साड़ी'- आपकी टिपण्णी

ऋतू जी ने 'सलवार कमीज़ बनाम साड़ी' शीर्षक आलेख पर अपनी टिपण्णी दी है, और इस चर्चा को आगे भी बढाया है। उसी चर्चा को और आगे ले जाने के प्रयास में:-
ऋतू जी, सबस पहले तो धन्यवाद कि, आपने मेरे बिचारों पर टिपण्णी की। मुझे नहीं पता की मेरी कमजोर लेखनी से इतनी बड़ी चुक कहाँ हो गयी जिससे आपको लगा कि मैंने पुरूष-महिला के पहनावे के बीच कोई होड़ की है। परिवार के पुरूष सदस्यों के धोती पहनने वाली बात से मेरा तात्पर्य यह था कि यदि घर की बुजर्ग महिला यह चाहती कि पुरूष सदस्य पारंपरिक कपड़े (धोती वगैरह) पहने, तो क्या पुरूष , अपने बुजर्गो की बात मान लेते ? ऐसी परिस्थिति आने पर या तो उस बुजुर्ग को समझाया जाता या उसकी बात अमान्य कर दी जाती। सवाल यह उठता है कि, यदि पुरुषों को अपने कपड़े चुनने की आजादी है तो यह आज़ादी महिलाओं को क्यों नहीं? शालीनता और मान्यताओं की दुहाई देकर कुछ हद तक इस बात को justify किया भी जाए कि बहुवों के पहनावे में दखल देना ग़लत नहीं है, तब भी यह सवाल तो खड़ा रह ही जाता है कि, साड़ी का समर्थन और सलवार-सूट का विरोध क्यों? सलवार-सूट न तो अश्लील है और न ही हमारी किसी मान्यताओं के बिरुध्ह है. रहा सवाल परम्परा का, तो शायद आपको भी याद होगा की साडीयाँ मारवाडी समाज की पारंपरिक वेश वुषा नहीं हैं.

कहने का तात्पर्य यह है कि यदि बुजर्गो का यह अधिकार है कि वो बहुवों के पहनावे में हस्तक्षेप करें तो घर के समझदार लोगो का यह कर्तव्य होना चाहिए कि, बुजर्गों द्वारा असामयिक या ग़लत फैसले लिए जाने पर बहुवों का पक्ष बुजर्गो के सामने सही ढंग से अवश्य रखे। मेरे लेख का तात्पर्य था कि घर के बुजर्गों कि बातें पुरूष और महिलाओं पर समान रूप से लागू होनी चाहिए। यदि पुरुषों को अपने ऊपर थोपी गयी बंदिशों का विरोध करने का अधिकार है तो यह अधिकार बहुवों को भी मिलना चाहिए. मजे की बात यह है कि जो सास आज बहुवों को सलवार-सूट पहनने से रोक रही है, वो महिलाएं या उनकी माएं, कभी साडीयाँ पहनने की इजाज़त नहीं मिलने का रोना रोया करती थी।

3 comments:

ab inconvenienti said...

संयुक्त परिवार में कई बार मन को मारना पड़ता है, जेनेरेशन गैप के कारण. अगर संयुक्त परिवार के कई सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक लाभ हैं तो कुछ बंदिशें भी हैं. साड़ी या सलवार सूट इतना बड़ा मुद्दा नहीं है की नई बहू के जीवन का पूरा आनंद उठाने में वह बाधक बने, तो फ़िर इतनी सी बात पर इतनी हायतौबा क्यों? आख़िर करोड़ों महिलाएं सारे समय साड़ी ही पहनती हैं, और अक्सर पुरूष सदस्य घर की बूढी सदस्या के जीवन भर के त्याग, बलिदान और सेवा के अहसानों के बोझ तले दबे होते हैं. सो वे भी इतनी सी बात पर माहौल ख़राब करना उचित नहीं समझते. बूढे तो अब बदलने से रहे हम ख़ुद ही थोड़ा बदल जायें.

Binod Ringania said...

इंसान इतना अजीब जानवर है कि कभी वह बदलाव को पसंद करता है कभी परंपरा को। शायद ऐसा होता होगा कि ज्यों-ज्यों किसी की उम्र बढ़ती जाती है त्यों-त्यों वह बदलाव का विरोधी होता जाता है।
पश्चिमी ड्रेसों का इतिहास देखें तो समझ में आएगा कि कितनी बाधाओं को पार कर वे आ पाई हैं।
कभी पेटिकोट का घेर इतना चौड़ा हुआ करता था और उसे किन्ही अन्य चीजों से गोलाकार बनाकर रखा जाता था कि मकान बनाने वालों को इसे ध्यान में रखकर चौड़ी सीढ़ियां बनानी पड़ती थीं।
पुरानी अंग्रजी फिल्में देखें कि किस तरह फर्श पर घिसटते गाउन के साथ राजपरिवार आदि की महिलाएँ चलती थीं।
पता नहीं अपने यहां साड़ी की उम्र और कितने साल है?

विनोद रिंगानिया

Anonymous said...

एक सास की तकलीफ:-
मेरी बेटी के तो भाग खुल गए है. इतनी अच्छी सास मिली है कि, ख़ुद ही चाय बना कर बहु को उठाती है. दामाद भी इतना अच्छा कि मेरी बेटी की हर एक बात मानता है. पर मेरे बेटे की तो तक़दीर ही फूटी निकली, पता नहीं कैसी बहु आयी है. सुबह सुबह घर वालों के बेड टी तक नहीं दे सकती है. दिन भर बेटे से फरमायश करती रहती है, बेटा भी करमजला बहु की फरमायश पुरी करने में ही लगा रहता है.
मनोज अगरवाला, गुवाहाटी