"एक दिन"
पता नहीं किस धुन में था,
या रात पढ़ी किताब का असर था

सुबह जूतें नही बाँध कर
चप्पल पहने ही निकल गया था।
दफ्तर में,
रामदीन को आवाज़ नहीं दे कर
ख़ुद ही उठ कर
पानी पी आया।
तालिया बजाने वाले इन हाथो से
"मजदूरों की समस्या" सेमिनार में बोलते
स्वामीनाथन के अमेरिकी
गिरेबान को पकड़ बैठा।
शाम को बार में जाते जाते
ठिठक कर रुक गया,
बाहर बैठे बच्चो को
अपना पर्स दे कर चला आया।
आते वक्त
आखिरी आधा रास्ता
रिक्शे वाले को पिछली सीट पर बैठा
मैं रिक्शा खींचता रहा। (मैंने शराब नहीं पी थी)
शायद उस सुबह मैं
घर पर ही रह गया था
निकलते वक्त ख़ुद को
घर पर ही छोड़ गया था।
ओमप्रकाश
2 comments:
बहुत अच्छी कविता है।
behtareen !!!
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