Thursday, December 11, 2008

इंटरनेट पर राज- पत्र

सरकार यदि कोई कानून पारित करती है या कोई सुचना या अधिसूचना जारी करती है तो, जन साधारण को उस की जानकारी देने का एक ही मध्यम है। और वो मध्यम है - गेजेट (राज -पत्र)। कानून व सूचनाओं को जनसाधारण तक पहुंचाने की सरकार की जिम्मेदारी, गजेट में प्रकाशित कर देने से पुरी हो जाती है। सुना गया है कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी इस बात को सही माना है। सतही तौर पर देखा जाए तो इसमें कोई समस्या भी नही है।

पर समस्या है। और समस्या है गेजेट का अनियमित प्रकाशन व समय पर नागरिकों को गेजेट प्राप्त न होना। जो लोग भी गेजेट मँगाने कि हैसियत रखते हैं और गेजेट के सालाना ग्राहक है, उनका यही कहना है कि उन्हें बहुत कम गेजेट ही प्राप्त होते है और pरपट होने वाले गेजेट भी अक्सर देर से प्राप्त होते हैं। सरकार चाहे तो गेजेट प्रकाशन वाले दिन से ही सुचना, कानून आदि को प्रभावी बना सकती है, जबकि नागरिकों को उसकी सुचना काफी देर से मिलती है। खाश कर, कर सम्बन्धी सूचनाओं और अधिसूचनाओं में इस कारण काफी समस्याए आती है।

जैसा कि अन्य कई देशों में है, क्या हमारी सरकारें (केंद्रीय और राज्य) गेजेट को ओन-लाइन प्रकाशित नही कर सकती? जरा सोचिये गेजेट ओन-लाइन प्रकाशित होने से लोगो को कितना भला हो जाएगा। अन्तर-जाल (inetrnet) पर जाने वाला हर एक नागरिक माउस क्लिक पर सरकारी सूचनाएं प्राप्त कर सकेगा। जरा सोचिये और अपनी टिपण्णी दीजिये:-

०१। क्या ऐसा होना चाहिए?

०२। हम इसके लिए क्या कर सकते हैं?

ओमप्रकाश अगरवाला

Saturday, November 29, 2008

कोई पप्पू न बचे

अब तो समझ में आ गयी अपने नेताओं की औकात। जिस देश के लाखों करोड़ रुपये स्विस बैंक में सड़ रहे हैं उस देश के पास अपनी सुरक्षा पर खरचने को पैसे नहीं है। चाहे वो पुलिस हो, चाहे वो सेना हो या चाहे वो रेलवे हों, समान की खरीद में २0-२५ प्रतिशत की धांधली की बातें अक्सर सुनायी देती है। उसके बाद भी समान की गुणवत्ता की बात तो कर ही नहीं सकते। कौन किसको पकड़े- हम्माम में सभी नंगे हैं।

ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा हो रहा है अपने देश में पढ़े लिखे पप्पुओं की बढती संख्या के कारण। मत संख्या में २-४ प्रतिशत के फेर बदल से पुरी की पुरी सरकार बदल जाती हैं, वहीँ इस देश में मतदान न करने वाले पप्पुओं की संख्या २५ प्रतिशत से ऊपर दिखती है। इन पप्पुओं में अधिकता पढ़े लिखे और ज्यादा समझ बुझ रखने वाले भाई बहनों की है। जब तक ये पप्पू नही जागेंगे, जब तक ये पप्पू वोट डालने नहीं लगेंगे, तब तक -"PLEASE BEAR WITH US"।

चुनाव सामने है, आइये हम सब मिलकर इन पप्पुओं को मतदान केन्द्र तक ले चलें। जिस दिन यह पढ़ा लिखा वर्ग मत-दान करने लगेगा- किसी माँ के लाल में हिम्मत नहीं होगी कि ११० करोड़ आबादी वाले इस देश की और आंख उठा कर भी देख लें। एक बार इन पप्पुओं को जगाना भर होगा। आइये जागरण का नगाडा इतने जोर से बजाएं की इस बार मत-दान के बाद एक भी पप्पू न बचे हमारे हिन्दुस्थान में।

Friday, November 28, 2008

जबरदस्त तमाचा है हिन्दुस्थान के गाल पर।

मुंबई में जो हुवा वो एक और जबरदस्त तमाचा है अपने हिन्दुस्थान के गाल पर। मुझे नहीं लगता किसी भी राजनेता को कोई गुस्सा भी आया होगा उनके इस दुस्साहस पर। हर थोड़े दिनों पर कोई न कोई घटना और हमेशा एक ही बहाना- Intelligency Failure।
१ अरब से ज्यादा लोगों के इस देश को एक छोटा सा देश लगातार परेशान कर रहा है, और हमारे नेताजी हैं कि दोस्ती की बातें कर रहें है। क्या ६० बर्षों का अनुभव कम है किसी को परखने के लिए? धर्म और जातियों के आधार पर लोगों को बांटते बांटते अब इन लोगो ने आतंकियों पर भी धर्म/मजहब और जातियों का लेबल चस्पां कर दिया है।

शर्म कि बात है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा फांसी की सजा सुनाये जाने के इतने दिनों बाद भी अफज़ल साहब को फांसी नहीं हुई। कोई बताने का कष्ट करेगा- क्यों? माफ़ी का आवेदन इतने दिनों तक ऐसे ही क्यों पड़ा हुवा है? अफज़ल साहब के आकाओं को खुश करने का प्रयास नहीं तो और क्या है यह? माफ़ नहीं कर रहे हैं - इस लिए हिंदू वोट पक्का और फांसी नहीं दे रहे हैं इस लिए मुस्लिम वोट पक्का! क्या समझ रखा है इन नेताओं ने हम हिन्दुस्थानियों को?

मुझे डर है कि इस घटना में भी पकड़े गए आतंकवादियों को ये लोग सजा नहीं होने देंगे। वाले वक्त में ऐसे ना जाने कितने अफज़ल हिन्दुस्थान की छाती पर मूंग दलते रहेंगे। हमें दुश्मनों की भला कहाँ जरूरत है, हमने तो सौंप पाल रखे हैं आस्तीनों में।

Monday, November 17, 2008

फतवा और भी जारी करना है.

लो भाई लोगो, समझदारों ने अब मधुशाला जैसी रचनाओं को पढना शरु कर दिया है। अब कैसे बर्दास्त करें भाई, अपने मजहब या मजहब स्थल पर ऐसी बातें? कर दिया जारी फतवा, जो करना है आप कर लो। हमारा तो नाम ही होगा न भाई? हिम्मत कैसे हुई किसी की कि मधुशाला को मजहब स्थल से बेहतर बताये। प्रतिक, उर्तिक क्या होता है? प्रतिक उर्तिक कि बात कर के हमें बेवकूफ बनाना चाहते हैं क्या आप लोग? अमिताभ जी ध्यान रखियेगा, बाबूजी को याद करते समय पब्लिक में मधुशाला मत गुनगुना लीजियेगा। अब पहले वाली बात नही रही है, अब हम भी मधुशाला जैसी धर्म बिरोधी रचनाओं को समझ सकते हैं।
सुना है, कोई एक कबीर नाम का भी साहित्यकार हुवा करता था, और उसने भी मुल्ला के बांग देने जैसी धर्म बिरोधी बातें कहीं है। अपने आदमी लगा दिये हैं जानकारी लेने को, एक फतवा उस पर भी जारी करना पड़ेगा। उमर खैयाम पर भी हम रिसर्च कर रहें हैं, उसकी ख़बर भी लेंगे। आप भी लोग भी ध्यान रखियेगा, ऐसा कोई भी लेख, कविता (भले ही कितना ही पुराना हो) आप कि नज़र में आए तो हमें बताइयेगा। अब कोई नहीं बचेगा, हम समझदार हो गए हैं।

Tuesday, November 11, 2008

'सलवार कमीज़ बनाम साड़ी'- आपकी टिपण्णी

ऋतू जी ने 'सलवार कमीज़ बनाम साड़ी' शीर्षक आलेख पर अपनी टिपण्णी दी है, और इस चर्चा को आगे भी बढाया है। उसी चर्चा को और आगे ले जाने के प्रयास में:-
ऋतू जी, सबस पहले तो धन्यवाद कि, आपने मेरे बिचारों पर टिपण्णी की। मुझे नहीं पता की मेरी कमजोर लेखनी से इतनी बड़ी चुक कहाँ हो गयी जिससे आपको लगा कि मैंने पुरूष-महिला के पहनावे के बीच कोई होड़ की है। परिवार के पुरूष सदस्यों के धोती पहनने वाली बात से मेरा तात्पर्य यह था कि यदि घर की बुजर्ग महिला यह चाहती कि पुरूष सदस्य पारंपरिक कपड़े (धोती वगैरह) पहने, तो क्या पुरूष , अपने बुजर्गो की बात मान लेते ? ऐसी परिस्थिति आने पर या तो उस बुजुर्ग को समझाया जाता या उसकी बात अमान्य कर दी जाती। सवाल यह उठता है कि, यदि पुरुषों को अपने कपड़े चुनने की आजादी है तो यह आज़ादी महिलाओं को क्यों नहीं? शालीनता और मान्यताओं की दुहाई देकर कुछ हद तक इस बात को justify किया भी जाए कि बहुवों के पहनावे में दखल देना ग़लत नहीं है, तब भी यह सवाल तो खड़ा रह ही जाता है कि, साड़ी का समर्थन और सलवार-सूट का विरोध क्यों? सलवार-सूट न तो अश्लील है और न ही हमारी किसी मान्यताओं के बिरुध्ह है. रहा सवाल परम्परा का, तो शायद आपको भी याद होगा की साडीयाँ मारवाडी समाज की पारंपरिक वेश वुषा नहीं हैं.

कहने का तात्पर्य यह है कि यदि बुजर्गो का यह अधिकार है कि वो बहुवों के पहनावे में हस्तक्षेप करें तो घर के समझदार लोगो का यह कर्तव्य होना चाहिए कि, बुजर्गों द्वारा असामयिक या ग़लत फैसले लिए जाने पर बहुवों का पक्ष बुजर्गो के सामने सही ढंग से अवश्य रखे। मेरे लेख का तात्पर्य था कि घर के बुजर्गों कि बातें पुरूष और महिलाओं पर समान रूप से लागू होनी चाहिए। यदि पुरुषों को अपने ऊपर थोपी गयी बंदिशों का विरोध करने का अधिकार है तो यह अधिकार बहुवों को भी मिलना चाहिए. मजे की बात यह है कि जो सास आज बहुवों को सलवार-सूट पहनने से रोक रही है, वो महिलाएं या उनकी माएं, कभी साडीयाँ पहनने की इजाज़त नहीं मिलने का रोना रोया करती थी।

'धरती धोरां री' ने अन्तिम विदाई दी अपने प्यारे पुत्र को.

11 नवम्बर 2008; कोलकाता: महामनीषी पद्मश्री श्री कन्हैया लाल सेठिया नहीं रहे। pरपट जानकारियों के अनुसार आज दोपहर तीन बजे उनकी अमर शोभा यात्रा इनके निवास स्थान : भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20 से नीमतल्ला घाट की ओर प्रस्थान करेगी।
‘धरती धौरां री’ एवं ‘पातल और पीथल’ जैसी कालजयी गीतों के रचयिता श्रधेय सेठिया जी को भावभीनी श्रधांजलि।

Monday, November 10, 2008

काली बिल्ली

रीती -रिवाज़, परम्पराएँ ये ऐसे शब्द जो ज्यादातः उन लोगो द्वारा कहे जाते हैं जो
इन शंब्दों का सही अर्थ तक नहीं जानते। वैसे ही ये शब्द उन लोगों पर ज्यादा प्रभाव छोड़ते हैं जो इस शब्दों का सही मतलब ही नहीं समझते। रीती रिवाज़ और परम्पराओं के नाम पर हमारे समाज में जाने अनजाने कुछ ऐसे कार्य शामिल कर लिए गएँ है या कुछ ऐसे कार्यों को अनिवार्य बना लिया गया है, जिन की आज कोई प्रासंगिकता ही नहीं है। इस गूढ़ बिषय पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे, फिलहाल आप पाठकों के सामने एक घटना परोसना चाहूँगा. घटना यूँ बयां की जा सकती है....

शादी कर एक बहु रानी अपने ससुराल आयी। कुछ दिनों बाद ससुराल में उसकी एक मात्र ननद की शादी का शुभ अवसर आया। एक अच्छी सास की तरह उक्त बहु की सास भी सारे कार्यो में बहु को अपने साथ रख रही थी , ताकि बहु उस परिवार (कबीले) की परम्पराएँ/ रिती -रिवाज़ अच्छी तरह सीख ले। बहु भी मन से सरे रिती- रीवाजों को अच्छे से देख रही थी।
शादी के घर में एक काली बिल्ली पाली हुई थी। सासू जी ने सोचा की घर में शुभ कार्य हो रहा है, और यह बिल्ली आते जातों का रास्ता काट कर अपशकुन न करें, और उन्होंने नाई से कह कर उस बिल्ली को एक खंभे से बंधवा दिया। शादी सकुशल हो गयी। बिल्ली को भी मुक्त कर दिया गया।
समय चक्र चलता रहा। उसी घर में आज एक और शादी हो रही है। शादी हो रही है उस बहु की बड़ी बेटी की। सासुजी दीवार पर लटकी अपनी तस्वीर से आशीर्वाद दे रही है। बरात आने का वक्त होने लगा है। अचानक लड़की की माँ (बहू) को ध्यान आता है और नाई को तुंरत बुलवाया जाता है और उसे कहा जाता है की जल्द से जल्द जा कर कहीं से एक काली बिल्ली ले कर आए और उसे खम्भे से बाँध दे। परिवार की रीतियों का पालन होना जरूरी है। नाई काली बिल्ली ले कर आता है और उस काली बिल्ली को खंभे से बाँधा जाता है और तब शादी की बाकी रस्में निभायी जाती है।

ऐसी न जाने कितनी काली बिल्लिया आज भी हमारे आंगनों में ऐसी रीतियों के नाम से बाँधी जा रहीं है... है न ?

यदि आप मेरे इस बिचार को आगे बढ़ाना चाहें या इस पर कुछ कहना चाहें, तो स्वागत है आपका।